एक अनजानी सी हिंदी कविता | बलिहारी | जिन्दगी | श्रृंगार रस | कवयित्री लक्ष्मी चौहान
एक अनजानी सी
हर बार तुम्ही पर बलिहारी
जब भी देखू मैं छवि तेरीसुन्दर और प्यारी ,
तब तू मन मेरा हर्षा जाए
लगती अनुपम मनहारी।।
मैं जल -तरंग की लहरों सा
तुम शान्त बहता पानी ,
मैं मूक दर्शक -सा बना रहूं
तुम दृश्य मनोहर सुकुमारी।।
मैं वीणा के तारों -सा
तुम मधुर स्वर लहरी।,
मेरे जीने की एक आशा
तुम जीवन की हो प्रहरी।।
मैं साँझ का डूबता सूरज
तुम भोर की उजियारी
मैं रातों का जलता दीपक ,
हर बार तुम्हीं पर बलिहारी।।
मैं दोपहर का तपता सूरज
तुम चाँद की चाँदनी
तुम शमा हो ,मैं परवाना
हर बार हमने दी कुर्बानी।।
जिन्दगी में मेरी वो
दूर तलक फैलीमखमल -सी कोमल चादर
उसमे बिखरे सपनो के अनगिनत रंग।
एक अल्हड़ -सी कूदती ,उछलती ,
मचलती , बलखाती हिरनी।
झील-सी गहरी दो आँखे
और सपनों से लदी पलकें
उनमें डूबता सूरज संग मैं।
बेपरवाह हवा में झूलती लताएं
जिनमें मन उलझकर रह जाए।
और भीनी -सी उड़ती खुुुशबू
कहीं दूर फलक तक ले जाए।
मन को मदहोश कर दे ऐसे
होश वाला भी होश खो जाए।
ख्वाब की रानाई , मीर का अदब,
झीनी सी हया और नूर गजब।
उसके चेहरे को देखता हूँ तो
जिंदगी ठहर -सी जाती है
जिंदगी में मेरी वो
कभी जिंदगी बन जाती है।
-कवयित्री लक्ष्मी चौहान
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